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कविता उस बस्ती में भी बसती हैं जान
देह का सौदा करने
अक्सर दिख जाते हैंI
वासना में जकड़े
खुद को पाते हैं I
क्या वह तब साथ
नहीं ले जाते मानI
दुनियावालो के ताने
बदनाम गली के लोग पाते हैI
क्या नहीं है उनका आत्म–सम्मान?
कोई यह भी तो समझे
उस बसती में भी बसती हैं जान
औरतो के मान को अक्सर
छलनी करते रहते हैंI
नन्हे बच्चो का भी
नहीं रखते हैं ध्यानI
समाज में जो मासूमियत का चोला पहने
कम से कम अपने परिवार का तो रखे मान
वही रात के अँधेरे में भेडिये वासना में बेहोश से रहते हैं
सदा बनते हैं कोठो की शानI
समाज को उठाने में तनिक भी नहीं देते योगदान
यह भी नहीं समझते,
उस बसती में भी बसती हैं जानI
“उस बसती में भी बसती हैं जान” कविता के माध्यम से बदनाम गली में दिन गुज़ारने वाली महिलाओं के दर्द को बयाँ करने का एक प्रयास किया हैI अंधेरी गुमनाम गलियों में दर्द से गुज़र रही महिलाए भी संविधान के द्वारा दिए गए मौलिक अधिकारों की हकदार हैI
आज भले ही दिल्ली के लोग अपने दिल्लीवासी होने पर गर्व महसूस करते हैंI लेकिन दिल्ली में जी.बी.रोङ स्थित कोठीखाना समाज की इसी सोच पर प्रश्नचिन्ह लगाता हैंI एक ओर तो समाज महिला सशक्तिकरण की बात करता हैं, दूसरी ओर, दलदल में फंसी महिलाओ को उठाने में सहयोग नहीं करता यह कैसा दोगलापन हैं?
आज आवश्यकता हैं कि समाज के सभी लोग बदनाम गली में रह रही महिलाओं के प्रति सदभाव रखे ताकि उनकी पीढीयो को इस दलदल से निकलने में मदद मिलेI लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ कहे जाने वाला मीडिया को भी इनकी आवाज़ बनानी चाहिएI सरकार को इनके हको के लिए क़ानून बनाने चाहिएI
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